प्रेम क्या है
शताब्दियों से ये प्रश्न लगभग प्रतयेक मनुष्य के मन में उठता है कि प्रेम क्या है। इसका अर्थ क्या है तथा इसकी परिभाषा क्या है।
यदि मुझे इसका उत्तर देना हो तो मैं ऐसे कहूँगा
अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरुपं। मूकास्वादन्वत।।
ये पङ्क्तियाँ नारद भक्ति सूत्र से हैं। ये कहती हैं कि प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है–इसे शब्दों के माध्यम से बखान करना कठिन है। ये तो वैसा ही है कि जैसे आप किसी गूँगे (मूक) व्यक्ति से पूछें कि खाने का स्वाद कैसा है। वो जो कुछ भी अनुभव करे वो बता नहीं सकता।
यही प्रेम के साथ भी है। प्रेम के प्रसङ्ग में हम सभी मूक हैं तथा कुछ भी बखान नहीं कर सकते।
बाद में महर्षि नारद ये कहते हैं कि भक्ति इसी प्रेम का एक रूप है।
आधुनिक युग में यद्यपि हम इस प्रेम क्या है प्रश्न का उत्तर ढ़ूँढ़ने चलें तो हम पायेंगे कि सामान्य मनुष्य लौकिक विषयों के प्रति आकर्षित रहता है तथा उसके लिए यही विषय प्रेम के योग्य हैं। किन्तु भगवान के अतिरिक्त कोई भी सच्चे प्रेम का अधिकारी नहीं है। मैं ये नहीं कहता कि सहयोगी मनुष्यों या वस्तुओं से प्रेम नहीं करना चाहिए परन्तु प्रेम की पराकाष्ठा भगवान के प्रति ही होती है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
मैं आपके विचार भी सुनना चाहूँगा। यदि आप मेरे विचारों पर कोई भी टिप्पणी करना चाहें तो मुझे अत्याधिक प्रसन्नता का अनुभव होगा।
सदैव प्रसन्न रहें।