खाली पेट तो किसी के दिमाग की बत्ती नहीं जलती
यह लेख वैज्ञानिक तथा चिकित्सों द्वारा प्रदान किए गए तथ्यों पर आधारित नहीं है अपितु एक व्यक्तिगत घटना के बारे में बात करता है जो कि मेरे बचपन में मेरे साथ घटी थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बढ़ते बच्चों को सही पोषण की सही मात्रा आवश्यक होती है परन्तु जब तक हम स्वयं के जीवन में कोई ऐसा दिन नहीं देख लेते जहाँ हमें यह पता चले कि कैसे यह आपके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं, आप इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते।
बहुत से समाचार तथा संशोधन पत्र यह बताते हैं कि हमारे देश में ढ़ेरों ऐसे विद्यार्थी हैं जो विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना का लाभ प्राप्त करने हेतु आते हैं जबकि उनकी घरेलु दशा ऐसी होती है कि वह दिन में दो समय का भोजन नहीं प्राप्त करते। बहुत से विद्यार्थी ऐसे हैं जो यदि विद्यालय आते भी हैं तो वो भूखे पेट आते हैं तथा यह जानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि उनकी एकाग्रता तथा ध्यान पढ़ाई में पूर्ण रूप से नहीं लग पाता। उनके शरीर में ऊर्जा का अभाव उन्हें वह शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर देता है जो वह अन्यथा प्राप्त कर सकते हैं।
मेरे बचपन की घटना
मैं पंजाब के एक गाँव में रहता था तथा उसी गाँव के राजकीय विद्यालय में पढ़ता था। मैं छठी कक्षा का छात्र था। मुझे स्मरण है कि उस दिन मुझे बहुत भूख लग रही थी परन्तु आधी छुट्टी (भोजन के लिए दिया गया समय) होने में अभी कुछ समय था। मेरे पेट में पीड़ा आरम्भ हो चुकी थी तथा पल-दर-पल यह बढ़ती जा रही थी। कुछ और समय बीतने के उपरान्त यह असहनीय हो गई तथा मेरा एक सहपाठी मुझे एक अध्यापक के कक्ष की ओर ले जाने लगा।
परन्तु पेट की पीड़ा इतनी तीव्र हो गई थी कि जैसे ही हम कक्ष में प्रवेश करने वाले थे, द्वार पर ही मुझे उल्टी आ गई। अध्यापक ने यह देख लिया था। उन्होंने मुझसे मेरा हाल-चाल पूछा तथा मुझे एक हाजमोला की एक गोली दी। विद्यालयों में प्रायः प्राथमिक चिकित्सा की कुछ सामग्री होती थी परन्तु यदि कोई गंभीर समस्या लगे तो बच्चों को घर भेज दिया जाता था। हमारे अध्यापक नें मेरे सहपाठी को मुझे घर छोड़ आने को कहा। मेरी माँ उसी विद्यालय में अध्यापिका थीं–हमने उन्हें अवगत कराया तथा घर आ गए।
थोड़ी देर बाद छुट्टी के समय मेरी माँ भी घर आ गईं तथा उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा। मेरी पीड़ा समाप्त हो चुकी थी तथा घर आने के बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई थी।
मेरी माँ ने मुझे भोजन खिलाया तथा मैं अपनी सहज दिनचर्या (मोहल्ले के मित्रों के साथ खेलना) में लग्न हो गया।
यह सारी घटना का कारण मेरी भूख थी।
श्री सत्य साई अन्नपूर्णा ट्रस्ट तथा उनका विद्यालयों में पोषण देने का कार्य
मैंने आपको यब घटना केवल यह बताने के लिए कही है क्योंकि मैं जानता हूँ कि भूख लगने से बच्चों को शारीरिक तथा मानसिक कठिनाई होती है। परन्तु यदि मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत मिलने वाले लाभ के साथ-साथ प्रातः काल में विद्यार्थीयों को कुछ भोज्य पदार्थ मिलने लगे तो इसका एक बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ सकता है, केवल शारीरिक या मानसिक ही नहीं अपितु व्यवहारिक तथा सामाजिक भी।
इसी ध्येय को लेकर कि कोई भी विद्यार्थी कभी भी विद्यालय भूखा ना जाए, श्री सत्य साई अन्नपूर्णा ट्रस्ट गत 11 वर्षों से काम में लगा हुआ है–बच्चों को प्रातः पोषण करवाते हुए।
लगभग 50 विद्यार्थियों से आरम्भ होकर यह सेवा एक जन आन्दोलन की भाँति बढ़ते हुए अब लगभग 30 लाख विद्यार्थियों तक पहुँच रही है जिसमें कुछ राज्य सरकारें भी भागीदारी कर रही हैं।
देश के लगभग सभी प्रांतों में जहाँ भी यह सेवा का कार्य हो रहा है, बच्चे, अध्यापक तथा प्रशासन की ओर से इसकी सराहना की गई है क्योंकि इसका एक सर्वव्यापी प्रभाव देखने के मिला है जो कि सर्व प्रथम बच्चों की शालाओं में बढ़ी उपस्थिति से आरम्भ होता है। स्वादिष्ट पोषण पेय पाने के लिए बच्चे समय पर विद्यालय आते हैं तथा इसे पीकर अपने स्वास्थ्य को सुधारने का प्रयास करते हैं जो कि बढ़ी ऊर्जा तथा एकाग्रता के रूप में प्रवर्तित होता है। बच्चे शिक्षा को बेहतर रूप से ग्रहण कर पाते हैं तथा यह अध्यापकों को भी एक प्रोत्साहन प्रदान करता है और अधिक प्रयास डालने के लिए। अंत में, यह सेवा राज्य तथा केन्द्र सरकारों की कई योजनाओं के संपूरक के रूप में कार्य करती है।
आएँ, इसके साथ चलें
इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक संस्था या व्यक्ति इस समस्या को हल नहीं कर सकता। सरकार, समाज तथा संस्थाओं की सहभागीदारिता ही इसे हल कर सकती है। आएँ इस सेवा के कार्य में भाग लें तथा सुनिश्चित करें कि विद्यालय जाने वाला प्रत्येक बच्चा पोषण प्राप्त करे जो उसे देश का एक सशक्त वासी बनाने में सहयोग करे।